जिलाध्यक्ष नहीं, परिवार का मोहरा चाहिए भाजपा नेताओं को?

साक्षी चतुर्वेदी
साक्षी चतुर्वेदी

गोरखपुर क्षेत्र में भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए आजकल सबसे बड़ा सवाल यही है। पंचायत चुनाव की आहट है, लेकिन दो जिलों—सिद्धार्थनगर और देवरिया—में अब तक जिलाध्यक्ष की घोषणा नहीं हुई। नतीजा? असमंजस, भ्रम, और संगठन में सुस्त पड़ती गति।

घोषणा में देरी की असली वजह: अंदरूनी खींचतान

जब बाकी जिलों में नियुक्तियाँ हो चुकी हैं, तो इन दो जिलों में रुकावट क्यों?
उत्तर है – अंदरूनी गुटबाजी और परिवारवाद।
सिद्धार्थनगर में एक कद्दावर नेता अपने पुत्र को आगामी चुनाव में उतारने की तैयारी में हैं और चाहते हैं कि जिलाध्यक्ष उनकी जेब का हो। वहीं देवरिया में दो गुट आपस में भिड़े हुए हैं — दोनों अपने परिवार के किसी सदस्य को टिकट दिलाने की जुगत में हैं।

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जातीय समीकरण भी बन रहे रोड़ा

भाजपा ने गोरखपुर क्षेत्र में जातीय संतुलन बनाते हुए 5 ब्राह्मण, 2 पिछड़ी जाति, 1 महिला, 1 कायस्थ और 1 भूमिहार जिलाध्यक्ष की नियुक्ति की है।
लेकिन सिद्धार्थनगर में अनुसूचित जाति और देवरिया में ठाकुर जिलाध्यक्ष को लेकर विवाद गर्म है। पार्टी का फॉर्मूला यहाँ लागू नहीं हो पा रहा।

देवरिया: सत्ता में ब्राह्मणों की भरमार, लेकिन ज़मीन पर असंतुलन

देवरिया में:

  • 1 ब्राह्मण सांसद

  • 2 ब्राह्मण विधायक

  • 1 ब्राह्मण जिला पंचायत अध्यक्ष

  • दर्जनों सवर्ण नेता हैं

इसके बावजूद पिछड़ी और अनुसूचित जाति का भी वर्चस्व है—3 पिछड़ी जाति के विधायक, 4 अनुसूचित नगर पंचायत अध्यक्ष आदि। लेकिन ठाकुर प्रतिनिधित्व न के बराबर है, और यहीं से विवाद की जड़ शुरू होती है।

कौन जीतेगा?

देवरिया में कुछ नेता अपने पौत्र/बहू को टिकट दिलाने की फिराक में जिलाध्यक्ष की कुर्सी को मोहरा बना रहे हैं। सूत्रों का दावा है कि एक वरिष्ठ नेता देवरिया को अनुसूचित कोटे में डालने का दबाव बना रहे हैं ताकि परिवार का रास्ता साफ हो सके।

इसी नेता पर 2022 में भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री सुनील बंसल को अपशब्द कहने का ऑडियो भी वायरल हुआ था। लेकिन राजनैतिक ‘वजन’ अब भी बरकरार है।

कार्यकर्ताओं की अनदेखी और गुटबाजी का असर

लोकसभा चुनावों में देवरिया (सलेमपुर) में पार्टी को हार और अन्य क्षेत्रों में कम अंतर से जीत के पीछे एक ही वजह दिखती है—स्थानीय कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और बाहरी नेताओं की गुटबाज़ी।

आगामी चुनावों के लिए खतरे की घंटी

पंचायत चुनाव सामने हैं, विधानसभा चुनाव दूर नहीं। अगर पार्टी ने समय रहते संगठन की गाड़ी को पटरी पर नहीं लाया और परिवारवाद पर लगाम नहीं कसी, तो परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।

सिद्धार्थनगर और देवरिया भाजपा की परीक्षा की भूमि बन चुके हैं। पार्टी को तय करना है—संगठन पहले या कुनबा? अगर गुटबाजी और परिवारवाद का मोह यूं ही चलता रहा, तो नज़दीकी चुनावों में झटका तय है।

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